New Delhi: खजूर छाप पीला डिब्बा जिसकी ढक्कन गहरे हरे रंग की हुआ करती थी। 90 के दशक में पैदा हुए हर भारतीय और पाकिस्तानी को डालडा के बारे में जरूर पता होगा। 21वीं सदी में पैदा हुए किशोरों को डालडा की कहानी उनके मां-बाप, दादा-दादी और नाना-नानी से जरूर सुनने को मिल जाता होगा। डालडा ने भारत और पाकिस्तान की रसोई में 70 से अधिक वर्षों तक राज किया है। आपको ये भी जानकर हैरानी होगी कि डालडा पूर्णतया भारत का पहला वनस्पति घी ब्रांड है। रसोई में डालडा के टिन के डिब्बे की जगह प्लास्टिक के डिब्बे और फिर पैकेट्स ने ली।
डालडा का इतिहास
निजी तौर पर हुसैन दादा डच कंपनी से वनस्पति घी का आयात करते थे। जो देशी घी और मक्खन का सस्ता विकल्प हुआ करता था। ब्रितानिया हूकुमत के दौर में देशी घी भारत में आम नागरिकों के लिए महंगा सौदा पड़ता था। इसलिए वनस्पित घी एक सस्ते घी के रूप में भारतीय घरों में जगह बनाने लगा।
सन् 1931 में हिंदुस्तान वनस्पति मैनुफैक्चरिंग कंपनी ने वनस्पति घी बनाना शुरू किया। उससे पहले 1930 की शुरुआत में हाइड्रोजेनेटेड वनस्पति तेल भारत में हुसैन दादा और हिंदुस्तान वनस्पति मैनुफैक्चरिंग कंपनी(जो बाद में हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड और यूनीलीवर पाकिस्तान कहलाई) ने मिलकर भारत में वनस्पति घी का आयात करना शुरू किया।
दादा के बजाय डालडा नाम कैसे पड़ा
हिंदुस्तान वनस्पति ने हाइड्रोजेनेटेड वनस्पति तेल का उत्पादन स्थानीय स्तर पर करना शुरू किया और जिसके लिए आज के ग्रेटर मुंबई में सेवरी में एक कारखाना स्थापित किया गया। इस तरह हाइड्रोजेनेटेड तेल के नए ब्रांड डालडा को पेश किया गया।
डालडा के नामकरण की भी कहानी बेहद अलहदा है। दरअसल हुसैन दादा भारत में दादा वनस्पति नाम से इस उत्पाद का आयात करते थे। लेकिन लीवर ब्रदर्स ने हुसैन दादा से कंपनी के नाम में एल (L) अक्षर बीच में फिट करके नए ब्रांड का नाम डालडा रखा। हुसैन दादा ने भी इस नाम पर सहमति दी और इस तरह सन् 1937 में डालडा ब्रांड बाजार में आया। इस ब्रांड ने भारत और पाकिस्तान में हर घर में लंबे समय तक राज किया।
भारत का पहला मल्टीमीडिया विज्ञापन
सन् 1939 में डालडा का विज्ञापन बनाया गया, जिसकी मार्केटिंग का जिम्मा भारत में मार्केटिंग कंपनी लिंटास को दिया गया, जिसने भारत का पहला मल्टीमीडिया विज्ञापन तैयार किया। डालडा को प्रचारित करने के लिए लिंटास ने सिनेमाहॉल के लिए शॉर्ट फिल्म बनाई, सड़कों पर प्रचार वाहन के लिए अलग से विज्ञापन तैयार किया, वहीं जो लोग उस दौर में पढ़े-लिखे थे उनके लिए प्रिंट विज्ञापन छपवाए गए। जबकि सड़कों के किनारे और शहरों में डालडा से तैयार किए गए स्नैक्स का स्टाल लगाकर लोगों को इसके स्वाद से प्रभावित करने की कोशिश की गई।
दिलचस्प गोल टिन के आकार की वैन सड़कों पर घूम रही थी। आकर्षक पर्चे बांटे गए और वनस्पति घी के छोटे-छोटे टिन बेचे गए। लोगों को उत्पाद को सूंघने, छूने और चखने के लिए प्रोत्साहित किया गया। डालडा के बारे में बात करने के लिए गांवों में घूमंतू कहानीकारों को लगाया गया था। अलग-अलग ग्राहकों के लिए डालडा का अलग-अलग पैक तैयार किया गया। होटल और रेस्तरां को बड़े, चौकोर टिन और निजी उपभोक्ताओं को छोटे, गोल टिन की पेशकश की गई।
कैसे हर रसोई में डालडा का डिब्बा पहुंचा
दरअसल उस दौर में नारियल का तेल और घी का खाने में इस्तेमाल होता था। खासकर कमजोर तबके के लिए रसोई में घी बड़ा महंगा पड़ता था। भारत में हाइड्रोजेनेटेड वनस्पति तेल को डच व्यापारियों ने पहुंचाया, जो सस्ता होने के चलते बहुत जल्दी ही लोकप्रिय हो गया।
स्वाद का नया विकल्प
डालडा को कम खर्चीले घी के रूप में स्वादिष्ट विकल्प के तौर पर पेश किया गया, ये घी के स्वाद के बेहद करीब था। मार्केटिंग कंपनी की रणनीति रंग लाई और जो लोग घी नहीं खरीद सकते थे, उन्होंने इस नए उत्पाद को सस्ती दरों पर खरीदना शुरू कर दिया। जल्द ही ‘डालडा’ और वनस्पति नाम एक दूसरे के पूरक हो गए। यह भारत में पहला ऐसा ब्रांड था, जिसे लोग वनस्पति तेल के बजाय डालडा के नाम से ज्यादा जानने लगे थे।
ऐसे फीका पड़ने लगा ये ब्रांड
भारत में डालडा ब्रांड ने 1980 के दशक तक एकछत्र राज किया। लेकिन इसी दौरान डालडा विवादों में भी रहा, दरअसल साल 1950 के दशक में इसे नकली घी कहकर बैन करने की मांग उठी। क्योंकि लोग इसके स्वाद को देशी घी की तरह नहीं मान रहे थे और स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक भी इसे बता रहे थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उस वक्त पूरे देश की राय जानने के लिए पोल किया, लेकिन उन्हें सही परिणाम हासिल नहीं हुआ। इसलिए एक समिति बनाई गई, जिसे इसकी गुणवत्ता की जांच सौंपी गई।
हालांकि उस वक्त ये विवाद थम गया। लेकिन साल 1990 के दशक में डालडा एक बार फिर विवादों में आ गया। इस बार इसमें पशुओं की चर्बी मिलाने का आरोप लगा। इस आरोप के डालडा की बिक्री में भारी गिरावट आई। इसी दौर में रिफाइंड तेल मार्केट में एंट्री मार रहे थे, जिन्हें लोगों ने हाथों-हाथ लेना शुरू कर दिया। डालडा धीरे-धीरे मार्केट में गायब होने लगा।
हेल्थ के लिए नुकसानदायक
हालांकि इस समय तक हाइड्रोजेनेटेड तेलों में ट्रांस-वसा से होने वाले नुकसान के बारे में उपभोक्ताओं में जागरूकता बढ़ रही थी। यह खराब कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है और अच्छे कोलेस्ट्रॉल को कम करता है, जिससे दिल के दौरे का खतरा बढ़ जाता है।
इसी दौर में ‘स्वच्छ’, सस्ते और स्वास्थ्यवर्धक खाद्य तेलों की एंट्री हो चुकी थी। मूंगफली का तेल, कुसुम का तेल, सूरजमुखी का तेल, ताड़ का तेल (पोस्टमैन, सफोला, सनड्रॉप और पामोलिन ब्रांड) जैसे वनस्पति तेल और सरसों का तेल डालडा के बाजार में हिस्सेदारी लेने लगे थे।
सबसे सफल ब्रांड को हिंदुस्तान यूनीलीवर ने बेच दिया
समय ऐसा आ गया कि जिस ब्रांड ने भारतीयों के खाना पकाने के तरीके को बदल दिया, उसे साल 2003 में एक ग्लोबल कृषि व्यवसाय से जुड़ी कंपनी बंज लिमिटेड ने खरीदा लिया। इसने डालडा ब्रांड को बरकरार रखा, हालांकि वनस्पति घी के उपभोक्ताओं में कमी बरकरार रही। लेकिन कंपनी ने वनस्पति तेल के अलावा अन्य प्रोडक्ट भी डालडा के नाम से बाजार में उतारे। डालडा की पैकेजिंग को नया रूप दिया गया है, साथ ही तेल में पोषण मूल्य का भी हवाला दिया गया।
रिपोर्ट- वरिष्ठ पत्रकार मनोज तिवारी