नई दिल्ली: आज महिला दिवस महज सोशल मीडिया और मैसेंजर जैसे अपलिकेशन पर रह गया है। कुछ पोस्ट सोशल मीडिया पर डाले जाते हैं जिन्हें लोग शेयर करते हैं लाइक करते हैं, महिलाओं के लिए समानता की बात कर उसे सशक्त बनाने की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए अपील कते हैं और फिर महिला दिवस खत्म हो जाता है।
लेकिन वह सभी महिलाएं जो हर दिन कड़ी मेहनत करती हैं – चाहे वह ज़िम्मेदारी बच्चों की परवरिश करना हो, काम पर योग्य तरक्की को पाना हो, या सिर्फ खुद को पाने की आज़ादी ढूंढना हो। वह जानती हैं कि यह सब उनके लिए काफी नहीं हैं। वह वास्तव में उन रोल मॉडलों की तलाश कर रही हैं, जो मांस-और-रक्त से बनी महिलाएं हों, जो उन्हें कुछ कर गुजरने की इच्छा प्रदान करें, जिसमें वह विश्वास कर सकें, और जिनके साथ वह खुद को जोड़ सकें।
यही वह वजह है कि स्मृति मंधाना की कहानी बहुत ही खास है। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में स्मृति की यात्रा एक ऐसी यात्रा है जो लगन और दृढ़ता, उत्साह और बहुत सारे प्यार और हँसी से भरी हुई है।
स्मृति मंधाना महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर सांगली से आती है। स्मृति के पिता, श्रीनिवास मंधाना, शहर में एक खेल के सामान के एक छोटे से डिस्ट्रिबिऊटर थे। क्रिकेट के लिए अपने अति उत्साही प्रेम के साथ (वे खुद एक बहुत ही उत्साही खिलाड़ी थे), श्री मंधाना ने दृढ़ निश्चय किया कि उनका बेटा भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाएगा। और इसलिए, हर सुबह, वह अपने बेटे को सांगली के शिवाजी स्टेडियम में अभ्यास करने के लिए ले जाते थे। लेकिन चीजें उनके अनुमान अनुसार घटित नहीं हुई। जब पिता और पुत्र सुबह 5 बजे स्टेडियम के लिए निकलने वाले होते थे, तो स्मृति (तब एक पांच साल की लड़की) दरवाजे के पास बैठी रहती, और उन्हें तब तक घर से निकलने नहीं देती जब तक वह उसे साथ नहीं ले जाते।
जब उसका भाई बल्लेबाजी कर रहा होता तो वह घंटों खड़ी रह कर फील्डिंग करती रहती, और फिर हर दिन आखिरी 5 मिनट तक बल्लेबाजी करती। इस प्रकार, अर्जुन अवार्ड प्राप्त करने वाली और बीसीसीआई की बेस्ट वूमैन इंटरनैशनल क्रिकेटर की यात्रा शुरू हुई। अपने पूरे बचपन के दौरान, उसके माता-पिता यह सोचकर उसे क्रिकेट खेलने से रोकने की कोशिश करते रहे, कि वह टेनिस या किसी अन्य खेल में बेहतर बन सकती है। लेकिन स्मृति के लिए, क्रिकेट ही जीवन था और है! जैसा कि वह खुद कहती है, “बल्लेबाजी एक ऐसी चीज है जो मुझे किसी भी दिमागी सोच से बाहर निकाल सकती है। मेरे लिए तो जीवन के बारे में जो कुछ भी मैं जानती हूंवह सब कुछ क्रिकेट ने ही मुझे सिखाया है।”
यही कारण है कि वह इसे दृढ़ता से लगातार खेलती रही। उन्हें पहली बार स्टेडियम में स्काउट्स द्वारा खेलते हुए देखा गया था। तब वह 9 साल की थी। उन्होंने उसे अंडर-15 के चयन के लिए आने के लिए कहा और उसके माता-पिता ने यह सोचकर उसे जाने नहीं दिया, कि यदि उसे चुना नहीं गया तो वह खेल के प्रति अपने जुनून को छोड़ देगी। लेकिन न केवल उसका तब चयन हुआ, बल्कि उसने सलामी बल्लेबाज के रूप में भी अपने आप को तब स्थापित किया और, जैसा कि वे कहते हैं बाकी सब इतिहास है।
इस पूरे घटना क्रम में, स्मृति ने अपने माता-पिता के हर सपने को पूरा किया है। जैसा कि उसके पिता कहते हैं, मैं भारत के लिए क्रिकेट खेलने का मौका चूक गया, लेकिन मैं हमेशा सोचता था कि मेरा बच्चा मेरा सपना पूरा करेगा। जब मेरा बेटा ऐसा नहीं कर पाया, तो मेरा दिल टूट गया था। लेकिन मुझे इस बात का कम ही एहसास था कि मेरी बेटी मेरे सपने को पूरा करेगी। आज, उसने हमें सब कुछ दे दिया है। इस खूबसूरत घर से लेकर गौरव की उस महान अनुभूति तक सब कुछ।”
टीम बेबाक