New Delhi: 98 साल के दिलीप कुमार को सांस लेने में दिक्कत के चलते 29 जून को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। आज उन्होंने 7:30 बजे आखिरी सांस ली।
11 दिसंबर 1922 को पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार इलाके में जब मोहम्मद सरवर खान के घर चौथी औलाद के तौर पर युसूफ खान का जन्म हुआ था। ये वही युसूफ खान थे जो आगे चलकर संगीत की दुनिया में आज भी दिलीप कुमार के नाम से जाने व पहचाने जा रहे हैं। गुजरते लम्हों के साथ आज दिलीप कुमार की उम्र ढल चुकी है। पर उनके द्वारा गाए गए सदाबहार नगमों में आज भी संगीत की मधुर फंकार सुनाई दे रही है। शायद इन्हीं फंकारों की वजह से 70-80 के दौर में दिलीप की दिवानगी उन्ाके चाहने वालों में शिर चढ़कर बोलती थी। युसूफ जब पांच साल के थे तब ,एक फकीर ने युसूफ ख़ान की दादी से कहा , इस बच्चे को बुरी नजर से बचाकर रखना। तब से ही उनकी दादी युसूफ के माथे पर टिका लगा दिया करती थी। ताकि युसूफ के चमकते भविष्य पर किसी की काली नजर न लगे। युसूफ बचपन में बेहद शर्मीले, कम बोलने वाले थे ,अकेले रहना पसंद करते थे ,घर की औरतों , मर्दों और मौलानाओं की नकल उतारा करते थे। और इन्हीं घरेलू किरदारों से निखर कर निकले दिलीप कुमार।
राज कपूर से युसूफ का जुड़ाव तो पेशावर से था, पर निकटता खालसा कॉलेज से बढ़ी
पाकिस्तान के पेशावर में जन्मे यूसुफ खान का परिवार भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद 1938 में पेशावर से मुंबई के देओलाली रहने आ गया। जहां दिलीप साहब के वालिद लाला गुलाम सरवर ने फल बेचने का कारोबार करना शुरु कर दिया। जिससे घर का खर्चा चलता था। दिलीप कुमार के कुल 12 भाई-बहन थे। दिलीप का बचपन शुरुआती जीवन बड़ी ही तंगहाली में बीता। परिवार बड़ा होने और आय कम होने के कारण बच्चों को जैसी परिवरिश मिलनी चाहिए थी, वैसी परवरिश दिलीप व उनके भाई-बहनों को नहीं मिल पाई थी। प्राथमिक शिक्षा के लिए युसूफ का दाखिला मुंबई के बारनेस स्कूल में हुआ था। यहां युसूफ ने अंग्रेजी सीखी, फूटबाल, क्रिकेट खेला, यूरोपियन और उर्दू लेखकों की किताबों में दिलचस्पी जगी। स्कूली शिक्षा के बाद सेन्ट्रल बॉम्बे के खालसा काॅलेज में युसूफ का दाखिला हुआ। यहां युसूफ की मुलाक़ात राज कपूर से हुई , राज कपूर -युसूफ के करीबी दोस्तों में से थे, पेशावर में दिलीप कुमार और राज कपूर पड़ोसी हुआ करते थे और दोनों के परिवारों की आपस में अच्छी जान पहचान थी
पुणे कैंटीन की पहली कमाई का पूरा पैसा अपनी मां को दे दिया था
सामान्यत: हर शख्स की तरह दिलीप कुमार की भी परिवारिक नोंक-झोंक होती थी। पर ये नोंक-झोंक दिलीप के पिताजी से 1942 में हुई थी। पिता से नोंक-झोंक के बाद दिलीप कुमार पुणे चले गए। युसूफ ने जब घर छोड़ा तब उनके पॉकेट में सिर्फ 40 रुपए थे। पुणे में युसूफ की मुलाकात कैफे चलने वाले ईरानी से हुई। यहां युसूफ ने काम शुरू किया। युसूफ को पुणे के इस कैफे में चिको नाम से पुकारा जाता था। चिको एक स्पैनिश शब्द है। जिसका मतलब है लड़का, सायरा बानो आज भी उन्हें चिको नाम से पुकारती हैं। कैंटीन में 7 महीने तक काम किया। दिलीप कुमार को कैंटीन में मेहनताना के तौर पर केवल 36 रुपए मिला करते थे। फिर पुणे में युसूफ ने अपना खुद का सैंडविच बेचने का बिज़नेस शुरू किया। इस बीच घरवालों से उनके रिश्ते भी बेहतर होने लगे। लिहाजा वे वापस मुंबई लौट आए। इस दौरान कमाए हुए सारे पैसे उन्होंने अपनी मां को दे दिए और तय किया की अब मुंबई में रहकर ही कुछ काम करेंगे।
आजादी की मांग जायज, हिंदुस्तान में अंग्रेजों की वजह से मुसीबतें हो रहीं हैं, बोलने पर हुई जेल
पुणे के एक क्लब में युसूफ ने अंग्रेजों के खिलाफ एक भाषण दिया था। भाषण देते हुए कहा कि आज़ादी की लड़ाई जायज है और ब्रिटिशों की वजह से ही हिंदुस्तान में सारी मुसीबतें पैदा हो रही हैं। इस क्रांतकारी भाषण पर तालियां तो खूब बजीं लेकिन वहां पुलिस आ गयी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, पुलिस ने उन्हें अंग्रेज सरकार के खिलाफ बोलने के जुर्म में जेल में दाल दिया । जेल में जेलर उन्हें गांधीवाला कह कर पुकारते थे।
मसानी ने युसूफ को पहुंचाया मंजिल तक, दिलाया एक्टिंग का काम
बात 1944 की है. बॉम्बे टॉकीज को एक नए हीरो की तलाश थी। स्टूडियो की मालकिन देविका रानी थीं। एक दिन वे बाजार में खरीदारी के लिए गईं। उनका इरादा खरीदारी का ही था। लेकिन दिमाग में अपने नए हीरो की तलाश की चाहत भी बसी हुई थी।
पुणे से बॉम्बे लौटने के बाद युसूफ के पास कोई काम नहीं था। युसूफ के एक परिचित थे डॉक्टर मसानी , मसानी की फिल्मों में कई लोगों से जान पहचान थी , इन्हीं में से एक थी बॉम्बे टाकीज़ की मालकिन देविका रानी। देविका रानी ने युसूफ खां पूछा था कि क्या आप उर्दू जानते हैं? युसूफ के हां कहते ही उन्होंने दूसरा सवाल किया क्या आप अभिनेता बनना पसंद करेंगे? युसूफ ने हाँ कर दिया। देविका रानी ने युसूफ को फिल्मों में ऐक्टिंग के बदले हर महीने 1250 रूपए तनख्वाह ऑफर कर दी, ये रकम बड़ी थी। क्योंकि तब राजकपुर की एक महीने की तनख्वाह सिर्फ 170 रूपए हुआ करती थी।
तरुण चतुर्वेदी/बेबाक टीम